Ammaji
![]() अम्माजी | |
बात शिमला के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडी की है।‘‘डेलविला’’ नाम से जो आवास मुझे आवंटित किया गया,उसमें दो फ्लैट थे। नीचे वाले फ्लैट में मैं अकेला रहता था और ऊपर वाले फ्लैट में इंस्टिट्यूट के पूर्व अधिकारी सूद साहब अपने परिवार सहित रहते थे। पति-पत्नी , दो लड़कियाँ और एक बूढ़ी माँ। माँ की उम्र अस्सी से ऊपर रही होगी। काया काफी दुबली। कमर भी एकदम झुकी हुई। वक्त के निशान चेहरे पर साफ तौर पर दिखते थे। सूद साहब की पत्नी किसी सरकारी स्कूल में अध्यापिक थी। दो बेटियों में से एक कॉलेज में पढ़ती थी और दूसरी किसी कम्पनी में सर्विस करती थी। माँ को सभी ‘‘अम्माजी’’ कहते थी। मैं भी इसी नाम से उसे जानने लग गया था। जब मैं पहली बार ‘‘डेलविला’’ बिल्डिंग में रहने को आया था, तो मेरे ठीक ऊपर वाले फ्लैट में कौन रहता था , इसकी जानकारी बहुत दिनों तक मुझे नहीं रही। सवेरे इंस्टिट्यूट निकल जाता और सायं घर लौट आता। ऊपर कौन रहता है , परिवार में उनके कौन-कौन लोग हैं ? आदि जानने की मैंने कभी कोशिश नहीं की। एक दिन सायंकाल को सूद साहब ने मेरा दरवाजा खटखटाया , अन्दर प्रवेश करते हुए वे बढ़ी सहजता के साथ मेरे कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले- ‘‘आप को इस फ्लैट में रहते हुए तीन महीने तो हो गए होंगे ?’’ ‘‘ हाँ , बस इतना ही हुआ होगा ।’’ मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया। ‘‘ कमाल है! आपने हमसे मिलने की कोशिश भी नहीं की..... भई , हम आपके ऊपर रहते हैं , पड़ौसी हैं आपके.....। ’’ ‘‘ वो, वोह, दरअसल , समय ही नहीं मिलता है। इंस्टिट्यूट से आते-आते ही सात बज जाते हैं...।’’ ‘‘अजी , इंस्टिट्यूट अपनी जगह और मिलना-जुलना अपनी जगह...। चलिए , आज डिनर आप हमारे साथ करें।’’ उन्होंने बढ़े ही आत्मीयतापूर्ण अंदाज में कहा। उनके इस अनुरोध को मैं टाल न सका। खाना देर तक चलता रहा। इस बीच सूद साहब के परिवार वालों से परिचय हो गया। सूद साहब ने तो नहीं , हाँ उनकी पत्नी ने मेरे घर-परिवार के बारे में विस्तार से जानकारी ली। चूँकि मेरी पत्नी भी नौकरी करती है और इस नई जगह पर उनका मेरे साथ स्थायी तौर पर रहना संभव न था, इसलिए मैंने स्पष्ट किया: ‘‘मेरी श्रीमती जी यदाकदा ही मेरे साथ रह पाएगी और हाँ बच्चे बड़े हो गये हैं... उनकी अपनी गृहस्थी है.... फिलहाल मैं अकेला ही रहूँगा......।’’ मुझे लगा कि मेरी इस बात से सूद दंपत्ति को उतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी कि उनकी बूढ़ी माँ को...। जब तक मैं खाना खा रहा था और अपने घर-परिवार आदि की बातें कर रहा था , अम्माजी बढ़े चाव से एकटक मुझे तके जा रही थी और मेरी बातों को ध्यान से सुन रही थी....। जैसे ही उसे मालूम पड़ा कि मैं अकेला ही रहूँगा और मेरी श्रीमतीजी कभी-कभी ही मेरे साथ रहा करेंगी तो मुझे लगा कि अम्माजी के चेहरे पर उदासी छा गई है। झुर्रियों भरे अपने चेहरे पर लगे मोटे चश्मे को ठीक करते हुए वे अपनी पहाड़ी भाषा में कुछ बुदबुदायी। मैं समझ गया कि अम्माजी मेरी श्रीमती जी के बारे में कुछ पूछ रही हैं , मैंने कहा- ‘‘हाँ अम्माजी , वोह भी सरकारी नौकरी करती हैं, यहाँ बहुत दिनों तक मेरे साथ नहीं रह सकती। हाँ , कभी-कभी आ जाया करेगी।’’ मेरी बात शायद अम्माजी ने पूरी तरह से सुनी नहीं , या फिर उनकी समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं। श्रीमती सूद ने अपनी बोली में अम्माजी को मेरी बात समझायी जिसे सुनकर मुझे लगा कि अम्माजी का चेहरा सचमुच बुझ-सा गया है। आँखों में रिक्तता-सी झलकने लगी है तथा गहन उदासी का भाव उनके अंग-अंग से टपकने लगा है। वे मुझे एकटक निहारने लगी और मैं उन्हें। सूद साहब बीच में बोल उठे- ‘‘इसको तो कोई चाहिए बात करने को... दिन में हम दोनों और बच्चे तो निकल जाते हैं - यह रह जाती है अकेली - अब आप ही बताइए कि इसके लिए घर में आसन जमाए कौन बैठे ? कौन अपना काम छोड़ इससे रोज-रोज गप्पबाजी करे ? वक्त है किस के पास ?....’’ सूद साहब की बात सुनकर मैंने महसूस किया कि अम्माजी कहीं भीतर तक हिल-सी गई हैं। अपने बेटे से शायद उसे मेरे सामने इस तरह की प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी। श्रीमती सूद अपने पति की इस प्रतिक्रिया से मन-ही-मन पुलकित हुई। जहाँ अम्माजी के चेहरे पर निराशा एवं अवसाद की रेखाएँ खिंच आईं , वहीं श्रीमती सूद के चेहरे पर प्रसन्नता मिश्रित संतोष के भाव उभर आए। कई महीने गुजर गए। इस बीच मैं बराबर महसूस करता रहा कि अम्माजी किसी से बात करने के लिए हमेशा लालायित रहती। उन्हें मैं अक्सर अपने फ्लैट की बालकानी में बैठे हुए पाता- अकेली , बेबस। नजरों को इधर-उधर घुमाते हुए , कुछ ढूँढते हुए ! कुछ खोजते हुए!! पुरानी यादों के कोष को सीने में संजोए ! ..... किसी दिन मैं इंस्टिट्यूट से जल्दी आता तो मुझे देखकर अम्माजी प्रसन्न हो जातीं , शायद यह सोचकर कि मैं उनसे कुछ बातें करूँगा !एक आध बार तो मैंने ऐसा कुछ किया भी , मगर हर बार ऐसा करना मेरे लिए संभव न था.... दरअसल , अम्माजी से बात करने में भाषा की समस्या भी एक बहुत बड़ा कारण था। इतवार का दिन था। मैं अपने कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। दरवाज़े पर खटखट की आवाज सुनकर मैंने दरवाजा खोला। सामने अम्माजी खड़ी थीं। छड़ी टिकाएँ वह कमरे में दाखिल हुई। साँस उसकी फूली हुई थी। कमरे में घुसते ही वह मुझसे बोली- ‘‘बेटा , तेरी बहू कब आएगी ?’’ अम्माजी के मुँह से अचानक यह प्रश्न सुनकर मैं तनिक सकपकाया। सोचने लगा , मैंने इसको पहले ही तो बता दिया है कि मेरी श्रीमती जी नौकरी करती है , जब उसको छुट् ï टी मिलेगी , तभी आ सकेगी फिर यह ऐसा क्यों पूछ रही है ? पानी का गिलास पकड़ते हुए मैंने कहा- ‘‘अम्माजी , अभी तो वह नहीं आ सकेगी , हाँ अगले महीने छुट्टी लेकर पाँच-छ: दिनों के लिए वह ज़रूर आएगी।’’ मेरी बात सुनकर अम्माजी कुछ सोच में डूब गई। शब्दों को समटते हुए अम्माजी टूटी-फूटी भाषा में बोली- ‘‘अच्छा तो चल मुझे सामने वाले मकान में ले चल। वहीं मेहरचंद की बहू से बातें करूँगी।’’ सहारा देते हुए अम्माजी को मैं सामने वाले मकान तक ले गया , रास्ते भर वह मुझे दुआएं देती रही ,... जीता रह , लम्बी उम्र हो , खुश रह..... आदि आदि। जब तक सूद साहब और उनकी श्रीमतीजी घर में होते , अम्माजी कहीं नहीं जाती। इधर , वे दोनों नौकरी पर निकल जाते , उधर अम्माजी का मन अधीर हो उठता , कभी बालकानी में , कभी नीचे , कभी पड़ौस में , कभी इधर , तो कभी उधर। एक दिन की बात है। तबियत ढीली होने के कारण मैं इंस्टिट्यूट नहीं गया। ठीक दो बजे के आसपास अम्माजी ने मेरा दरवा $ जा खटखटाया। चेहरा उनका बता रहा था कि वह बहुत परेशान है। तब मेरी श्रीमतीजी भी कुछ दिनों के लिए मेरे पास आई हुई थीं। अंदर प्रवेश करते हुए वह बोली- ‘‘ बेटा , अस्पताल फोन करो- सूद साहब के बारे में पता करो कि अब वह कैसे हैं ? ’’ यह तो मुझे मालूम था कि दो चार दिन से सूद साहब की तबियत ठीक नहीं चल रही थी। गर्दन में मोच-सी आ गई थी और बुखार भी था। मगर उन्हें अस्पताल ले जाया गया है , यह मुझे मालूम न था। इंस्टिट्यूट में भी किसी ने कुछ नहीं बताया। इससे पहले कि मैं कुछ कहता , अम्माजी मेरी श्रीमतीजी से रुआंसे स्वर में बोली- ‘‘बहू इनसे कहो ना फोन करे , पता करे कि सूद साहब कैसे हैं और कब तक आएँगे ?’’ श्रीमती मुझे देखने लगी और मैं उन्हें। अस्पताल में सूद साहब भर्ती हैं , मगर किस अस्पताल में हैं , किस वार्ड में हैं , और कब से भर्ती हैं ? जब तक यह न पता चले तो फोन कहाँ और किधर किया जाए ? मैंने तनिक ऊँचे स्वर में अम्माजी से कहा- ‘‘अम्माजी अस्पताल का फोन नम्बर है आपके पास ?’ मेरी बात शायद अम्माजी को पूरी तरह से समझ में नहीं आई। बोली- ‘‘सूद साहब अस्पताल में हैं। रात को ले गये बेटा , पता करो कैसे हैं ? कब आएँगे ? मैंने तो कल से कुछ भी नहीं खाया।’’ मेरे सामने एक अजीब तरह की स्थिति पैदा हो गई। न अस्पताल का नाम-पता , न फोन नम्बर , न और कोई जानकारी। मैं पता लगाऊँ तो कैसे ? उधर अम्माजी अपने बेटे के बारे में हद से ज्य़ादा परेशान। कभी उठे , कभी बैठे , कभी रोए तो कभी कुछ बुदबुदाए। मैंने ऐसी एक-दो जगहों पर फोन मिलाएँ जहाँ से सूद साहब के बारे में जानकारी मिल सकती थी। पर मुझे सफलता नहीं मिली। विवश होकर मुझे अम्माजी से कहना पड़ा- ‘‘अम्माजी आप चिन्ता न करो। सब ठीक हो जाएगा। सूद साहब आते ही होंगे।’’ बड़ी मुश्किल से मेरी बात को स्वीकार कर अम्माजी भारी कदमों से ऊपर चली गई। जाते-जाते अम्माजी मेरी श्रीमतीजी से कहने लगी- ‘‘बहू , तुम भी मेरे साथ चलो ऊपर। मेरा मन लग जाएगा।’’ हम दोनों अम्माजी को सहारा देते हुए ऊपर चले गए। मेरी श्रीमतीजी से बात करते-करते अम्माजी टी.वी. के पास पहुँच गई और वहीं पर रखी सूद साहब की तस्वीर को ममता भरी नजरों से देखने लगी। तस्वीर पर चारों ओर हाथ फेर कर वह फिर बुदबुदायी- ‘‘फोन करो ना बेटा , सूद साहब अभी तक क्यों नहीं आए ? बहुत समझाने के बाद भी जब अम्माजी ने फोन करने की जिद न छोड़ी तो मुझे एक युक्ति सूझी। मैंने फोन घुमाया- ‘‘ हैलो! अस्पताल से , अच्छा-अच्छा ..... यह बताइए कि सूद साहब की तबियत अब कैसी है ? क्या कहा- ठीक है..... एक घंटे में आ जाएँगे। - हाँ- हाँ - ठीक है -। अच्छा , धन्यवाद ! ’’ फोन रखते ही मैंने अम्माजी से कहा- ‘‘अम्माजी , सूद साहब ठीक हैं , अब चिंता की कोई बात नहीं है।’’ मेरी बात सुन कर अम्माजी का ममता-भरा चेहरा खिल उठा। उसने मुझे खूब दुआएँ दी। सुखद संयोग कुछ ऐसा बना कि सचमुच सूद साहब और उनकी श्रीमती जी एक घंटे के भीतर ही लौट आए। कुछ दिन गुजर जाने के बाद मैंने सूद साहब से सारी बातें कहीं। किस तरह अम्माजी उनकी तबियत को लेकर परेशान रही , कैसे अस्पताल फोन करने की बार-बार जि़द करती रही और फिर मैंने अपनी युक्ति बता दी जिसे सुनकर सूद साहब तनिक मुस्कराए और कहने लगे: ‘‘माँ की ममता के सामने संसार के सभी रिश्त-नाते सिमटकर रह जाते हैं- सौभाग्यशाली हैं वे जिन्हें माँ का प्यार लम्बे समय तक नसीब होता है।’’ सूद साहब की अंतिम पंक्ति सुनते ही मुझे मेरी माँ की याद आई और उसका ममता-भरा चेहरा देर तक आँखों के सामने घूमता रहा। | |
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Born: April22,1942 Srinagar(J&K); Education: J&K,Rajasthan and Kurukshetra Univs;Head Hindi Dept.Govt Postgraduate College, Alwar;Sought voluntary retirement from Principalship and joined Indian Institute of Advanced Study,Rashtrapati Nivas, Shimla as Fellow to work on Problems of Translation(1999-2001). Publications: 14 books including Kashmiri Bhasha Aur Sahitya(1972), Kashmiri Sahitya Ki Naveentam Pravrittiyan(1973), Kashmiri Ramayan:Ramavtarcharit(1975 tr.from Kashmiri into Hindi), Lal Ded/Habbakhatoon-monographs tr.from English(1980), Shair-e-Kashmir Mehjoor(tr.1989); Ek Daur(Novel tr.1980) Kashmiri Kavyitriyan Aur unka Rachna Sansar(1996 crit); Maun Sambashan(Short stories 1999); Awards: Bihar Rajya Bhasha Vibagh, Patna 1983; Central Hindi Directorate 1972, Sauhard Samman 1990; Rajasthan Sahitya Academy Translation Award (1998) Bhartiya Anuvad Parishad Award(1999); Titles conferred:Sahityashri,Sahitya Vageesh, Alwar Gaurav, Anuvadshri etc. Address: 2/537(HIG) Aravali Vihar,Alwar 301001, India | |
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